गोविंदा के हमउम्र कलाकार बॉलीवुड पर राज कर रहे हैं और गोविंदा घर बैठे बॉलीवुड को कोस-कोस कर अपने दिन गुजार रहे हैं. बॉलीवुड से गोविंदा को शिकायत है कि कामयाब फिल्मों का अंबार लगा देने के बावजूद इंडस्ट्री उनसे तब किनारा कर रही है, जब उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है. लगभग चार दशक का लंबा अरसा बॉलीवुड में गुजार चुके गोविंदा अगर बॉलीवुड की फितरत को लेकर ऐसी शिकायतें करते हैं तो हैरत होना लाजिमी है. बॉलीवुड चुके हुए कारतूसों को अपने गोदाम में भी रखना पसंद नहीं करता. इस सच से तो गोविंदा वाकिफ होंगे ही. इसलिए जब गोविंदा ऐसी शिकायतें करते हैं तो उनकी पीड़ा पर अफ़सोस से ज्यादा कोफ़्त ही होती है.
अपने पूरे फ़िल्मी करियर में गोविंदा ने कितनी बार वापसी की है इसे ठीक-ठीक बताना मुश्किल है. अमूमन एक बार अगर किसी अभिनेता के करियर पर विराम लग जाए तो उसे पूर्णविराम ही मान लिया जाता है लेकिन इस मायने में गोविंद बाकी दूसरे अभिनेताओं से भाग्यशाली रहे. तीन बार फ़िल्मी पंडितों द्वारा गोविंदा की फ़िल्मी पारी की समाप्ति की घोषणा के बावजूद हर बार वो पूरी मजबूती से वापस लौट आए.
साल 2005 ,2009 और 2013 ये तीन साल गोविंदा के करियर के अहम पड़ाव साबित हुए हैं जब गोविंदा ने लगभग ख़त्म हो चुके अपने करियर नयी रफ़्तार से आगे बढ़ाया. लेकिन ऐसी क्या बात है कि रफ़्तार पकड़ चुका उनका करियर आगे बढ़ने के बजाय बार-बार अटक जाता है.
सबसे पहले बात उनके स्वभाव की. परदे पर गोविंद अपनी बिना सर पैर वाली कॉमेडी से दर्शकों को हंसाते नजर आए. लेकिन निजी ज़िन्दगी में गोविंदा कई सारी कुंठाओं के साथ जीते रहे. उन्हें हमेशा शिकायत रही कि उन्हें उनके कैलीवर की फ़िल्में नहीं मिली. कुछ हद तक देखें तो ये सच भी है. गोविंदा भले ही कॉमेडी फिल्मों के बेताज बादशाह रहे लेकिन इन फिल्मों में उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं हुआ. गोविंदा ने कई बार कॉमेडी से इतर (ह्त्या,शोला और शबनम ) भी खुद को बेहतर अभिनेता साबित किया. उनमें डांस और गायन प्रतिभा भी है लेकिन फिल्मों को हिट बनाने के चक्कर में खुद गोविंदा अपनी इस प्रतिभा को सामने नहीं ला पाए और कॉमेडी कर अपने इस गम को गलत करते रहे. उनकी इस कुंठा का शिकार बॉलीवुड भी कम नहीं हुआ.
गोविंदा ने कभी एक्टिंग करियर को गंभीरता से लिया ही नहीं. “इल्ज़ाम” की कामयाबी के बाद उन्होंने एक के बाद एक 40 फ़िल्में साइन कर डाली. तीन-तीन शिफ्ट में काम करने वाले गोविंदा ने कितने निर्मातों को खून के आंसू रोने को मजबूर किया है इसका हिसाब तो खुद उनके पास भी नहीं होगा.
गोविंदा ने डायरेक्टर डेविड धवन के साथ पहली बार फिल्म ‘ताकतवर’ में काम किया था, उसके बाद 90 के दशक में लगभग 17 फिल्मों में काम किया जिनमें ‘स्वर्ग’, ‘शोला और शबनम’, ‘कुली नंबर 1’, ‘राजा बाबू’, ‘साजन चले ससुराल’, ‘बनारसी बाबू’, ‘दीवाना मस्ताना’, ‘हीरो नंबर 1’, ‘बड़े मियां छोटे मियां’, ‘हसीना मान जायेगी’ और ‘आंखें’ जैसी फिल्में थी.
एक वक्त पर गोविंदा को ‘गदर: एक प्रेम कथा’, ‘ताल’ और ‘देवदास’ जैसी सफल फिल्मों के ऑफर भी आाए थे, लेकिन उन्होंने मना कर दिया था.
साल 2004 में गोविंदा ने पॉलिटिक्स में भी अपना हाथ आजमाया और कांग्रेस पार्टी की तरफ से चुनाव लड़कर सांसद भी बने. लेकिन 2006 में एक बार फिर से फिल्मी करियर में कमबैक किया और अक्षय कुमार के साथ ‘भागम भाग’ फिल्म में अहम किरदार निभाया. यशराज की फिल्म “किल दिल” से उन्हौने बतौर विलेन बॉलीवुड में वापसी की कोशिश की लेकिन असफल रहे.
गोविंदा के साथ सबसे बड़ी समस्या ये है कि वो वक्त के मुताबिक़ खुद को ढालना ही नहीं चाहते. फिल्मों में हीरो बने रहने की जिद्द भी उनके करियर को आगे बढ़ाने में मुश्किलें पैदा कर रहीं. उनके हमउम्र अभिनेता अब भी मैदान में है इसकी वजह तो वो जानते ही होंगे. चेहरे से झलकती झुर्रियां और थुलथुली काया वाले शख्स को परदे पर रोमांस करते देखने का चलन ऋषि कपूर के साथ ही ख़त्म हो गया. गोविंदा के लिए कैरेक्टर रोल का विकल्प अभी भी खुला हुआ है लेकिन वो मानने को तैयार नहीं. तो बेहतर है कि गोविंदा देव साहब की तरह खुद के लिए फिल्म बना कर खुद ही देखते रहें.