Keshto Mukherjee : कुत्ते की तरह भौंकने से मिला एक्टर बनने का मौक़ा

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केष्टो मुखर्जी का नाम लेते ही हिचकी लेता कोई शराबी याद आता है. बिना पिए ही इनकी शक्ल पियक्कड़ जैसी लगती थी. इसीलिए इन्होंने सबसे ज़्यादा शराबी वाले किरदार किये. मज़े की बात ये है कि इन्होंने असल ज़िन्दगी में कभी शराब नहीं पी. केष्टो एक बार काम के सिलसिले में बिमल राय से मिले. बिमल दा बोले-‘‘अभी तो नहीं है. फिर आना.’’ मगर केष्टो खड़े रहे. बिमल दा ने उन्हें वहीं खड़े देखा तो झुल्लाकर बोले-‘‘अभी कुत्ते की आवाज़ की ज़रूरत है. भौंक सकते हो..?’’ वो बोले -‘‘हां..। भौंक सकता हूं..। मौका तो दें..।’’ और केष्टो ने कुत्ते की परफेक्ट आवाज़ निकाल दी. बिमल दा उछल पड़े. इस फिल्म से केष्टो शुरुआत तो हुई, लेकिन उन्हें पहचान मिली 1970 में रिलीज़ ‘मां और ममता’ से.

डायरेक्टर असित सेन को अपनी फिल्म के लिए एक पियक्कड़ की ज़रूरत थी. केष्टो मुखर्जी काम की तलाश में वहीं मंडरा रहे थे. असित दा ने केष्टो से पूछा-‘‘शराबी की एक्टिंग करेगा?’’ उन्होंने हामी भर दी. इस फिल्म में उनकी एक्टिंग को पसंद किया गया और केष्टो मुखर्जी के पास फिल्मों की लाईन लग गई. लेकिन हर कोई उन्हें पियक्कड़ के रोल ही ऑफर कर रहा था. केष्टो सभी को बार-बार बताते और समझाते-‘‘भाई मैं दारूबाज़ नहीं..।’’ मगर उनकी बात कोई मानने-सुनने के लिये तैयार ही नहीं था. मजबूरी थी काम तो करना ही था. धीरे-धीरे यही उनकी पहचान बन गई.

दारूबाज़ की भूमिका में केष्टो मुखर्जी ने अनेक मजे़दार और सीन लूटने वाली फिल्में की है. इनमें जो फिल्म सबसे अच्छी कही जा सकती है, वो है..ऋषिकेश मुखर्जी की ‘चुपके चुपके’. इसमें केष्टो ड्राईवर जेम्स डिकोस्टा थे, जो असमंस्य फैलाने वाले सूत्रधारों में से एक था. अन्य यादगार फिल्मों में ‘परख’, ‘प्राण जाये पर वचन न जाये’, ‘आपकी कसम’, ‘गोलमाल’, ‘दि बरनिंग ट्रेन’ जैसी फ़िल्में थी. साल 1985 में आई ‘गज़ब’ उनकी आखिरी फिल्म रही. यह उनकी मृत्यु के बाद रिलीज़ हुई थी.

केष्टो ने तकरीबन 150 फिल्मों में दर्शकों को हंसाने को काम किया था. यूं तो केष्टो ने अपने दौर के हर बड़े प्रोडयूसर-डायरेक्टर और नायक के साथ काम किया, परंतु ऋषिकेश मुखर्जी और गुलज़ार की फिल्मों में नियमित दिखे. उन्होंने उनकी प्रतिभा का श्रेष्ठ प्रयोग किया. ऋषि दा की ‘खूबसूरत’ में वो कुक थे, जिसके लिये फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता का पुरस्कार उनके नाम रहा. हर हास्य का अंत त्रासदी में हुआ है. यह नियति रही है हास्य की. केष्टो मुखर्जी की भी फकीरी की हालत में साल 1985 में मृत्यु हो गई.

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