बॉलीवुड के मौजूदा संगीतकारों में विदेशी धुनों से प्रेरणा लेने की लम्बी परंपरा रही है. लेकिन ए आर रहमान ने इस परंपरा के विपरीत जा कर देशी धुनों की जुगलबंदी कर बॉलीवुड को एक नए संगीत संसार से परिचित कराया और उनकी इसी खासियत ने उन्हें फिल्म संगीत के सबसे मौलिक म्यूजिशियन होने का खिताब दे दिया. रहमान के संगीत में एक मस्ती है जहाँ धुनों पर थिरकते बोल श्रोताओं को झूमने पर मजबूर कर देते हैं. यही वजह है कि रहमान की शोहरत देशी दहलीज लांघ कर विदेशों में भी भारतीय संगीत का परचम फहरा रही है.
6 जनवरी 1966 को चेन्नई में जन्मे रहमान के पिता आर के रहमान मलयालम फिल्मों के लिए संगीत देते थे। रहमान जब मात्र 9 वर्ष के थे तब उनके पिता की मौत हो गई थी। रहमान के घरवालों ने संगीत के वाद्य यंत्र किराए से देकर गुजर-बसर किया। पिता की मौत का रहमान के मन पर गहरा असर हुआ। मात्र 11 वर्ष की उम्र में अपने बचपन के मित्र शिवमणि के साथ रहमान बैंड रुट्स के लिए की-बोर्ड (सिंथेसाइजर) बजाने का कार्य करने लगे जहाँ मशहूर संगीतकार इलियाराजा से उनकी मुलाक़ात हुई। इलैयाराजा ने रहमान को तराशने में काफी अहम रोल अदा किया। 1991 में रहमान ने अपना स्टूडियो शुरू किया जिसमे वो विज्ञापनों और डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए संगीत देते थे। एक जिंगल की धुनों से प्रभावित हो कर 1992 में फिल्म निर्देशक मणिरत्नम ने उन्हें अपनी फिल्म “रोजा” में बतौर संगीत निर्देशक काम दिया।
रोजा की कामयाब रही। इस फिल्म में रहमान ने संगीत दिया वो जल्द ही लोगों की जुबान पर चढ़ गया। रोजा की धुनें बॉलीवुड की पारम्परिक धुनों से बिलकुल अलग थी। नदीम-श्रवण मार्का मेलोडी के बीच ताजी हवा सा रहमान की धुनें लोगो को भा गयी और इसके बाद रहमान ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिल्म रोजा के संगीत को टाइम्स पत्रिका ने टॉप टेन मूवी साउंडट्रेक ऑफ ऑल टाइम इन 2005 में जगह दी। पहली फिल्म में ही रहमान ने फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार जीता। रोजा के बाद आयी रामगोपाल वर्मा की रंगीला और मणिरत्नम की बॉम्बे ने खूब धूम मचाई। रहमान ने धुनों के साथ परम्परागत वाद्ययंत्रों के प्रयोग में भी नया नजरिया पेश किया।
यही वजह है की श्रोताओं ने रहमान की धुनों को खूब पसंद किया। तहजीब, दिल से, रंगीला, ताल, जींस, पुकार, फिजा, लगान, मंगल पांडे, स्वदेश, रंग दे बसंती, जोधा-अकबर,जाने तू या जाने ना, युवराज, स्लम डॉग मिलेनियर, गजनी जैसी फिल्मों में रहमान नए-नए प्रयोग करते रहे और संगीत को नई ऊंचाइयों पर पहुंचते रहे। । उन्होंने देश की आजादी की ५०वीं वर्षगाँठ पर १९९७ में “वंदे मातरम्” एलबम बनाया, जो जबर्दस्त सफल रहा। भारत बाला के निर्देशन में बनी एलबम “जन गण मन”, जिसमें भारतीय शास्त्रीय संगीत से जुड़ी कई नामी हस्तियों ने सहयोग दिया उनका एक और महत्वपूर्ण काम था।।
रहमान पेशे से संगीतकार जरूर हैं लेकिन संगीत उनके लिए पेशे से बढ़कर एक इबादत की तरह है। संगीत उनके दिमाग से नहीं दिल से निकल कर सीधे सुनने वालों के दिल में उत्तर जाता है। रहमान पर सूफीवाद का गहरा असर है।फिल्मों में जहाँ कहीं ऐसा मौका मिलता है रहमान सूफी संगीत पर अपनी पकड़ साबित कर देते हैं। फिल्म जोधा-अकबर उनकी सूफी समझ का बेजोड़ उदहारण है।
आर रहमान को कर्नाटकी, पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत, हिन्दुस्तानी संगीत में महारात हासिल है। इस कारण संगीत का कोई भी भाग उनसे अछूता नहीं। वे प्रयोग करने में काफी विश्वास करते हैं नई आवाज को वे मौका जरूर देते हैं और नए वाद्य यंत्रों के माध्यम से प्रयोग करना भी वे खूब जानते हैं।बहरहाल रहमान की संगीत यात्रा अभी जारी है.जब तक रहमान संगीत के क्षेत्र में सक्रिय रहेंगे तब-तब फ़िल्मी संगीत रहमान के नए-नए कीर्तिमान से रु-ब-रु होता रहेगा।